Saturday 6 June 2015

हज़ार लफ्ज़, सौ सवाल और कुछ लम्हे

कहने को हज़ारों लफ्ज़ हैं 
पर तुम जाते-जाते कुछ कह गए 
कि अब दूर रहते हुए, ये समझ न आए 
कि वो लफ्ज़ कहाँ ढह गये। 

पूछने को हैं सौ सवाल
पर पूछने से डर लगता है। 
पता नहीं जवाब आए या न आए,
और आए भी तो क्या हश्र कर जाए। 

कुछ लम्हें और ही माँगे थे। 
माँगा ज़्यादा नहीं था। 
शायद देने वाले ने पहचान लिया,
कि इस चाह का कोई अंत नहीं था। 

अब इसी बात को गाँठ बाँधकर रखना है,
कि किसी को इसका इल्म न पड़े। 
कि अब इसी एहसास को लेकर आगे बढ़ना है…
कहीं ये लफ्ज़, ये सवाल, ये लम्हें,
हमसे कोई चुरा न ले।

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